श्राद्ध  एक संस्कृत शब्द है। जिसका शाब्दिक अर्थ होता है, कोई भी कार्य या कोई भी दान जो पूरी ईमानदारी और पूर्ण विश्वास के साथ किसी को समर्पित किया जाता है।

हिंदू धर्म में, यह एक पवित्र अनुष्ठान होता है जिसमे  कोई भी व्यक्ति अपने ‘पूर्वजों की आत्मा की शांति और मुक्ति ‘ के लिए उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करता है, खासकर अपने  मृत माता-पिता को।

व्यावहारिक रूप से यह किसी भी हिन्दू परिवार का अपने मृत पूर्वजों और माता-पिता के प्रति अपनी भावनाओं को व्यक्त करने और दिल से उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का तरीका होता है।

आश्विन मास के कृष्ण पक्ष को भारतीय हिन्दू धर्म समाज में श्राद्ध पक्ष के रूप में मनाया जाता है। इस प्रथा को  महालय या पितृ पक्ष के नाम से भी उच्चारित किया जाता हैं।

श्राद्ध पक्ष की महिमा एवं विधि-विधान का वर्णन हमको प्राचीन ग्रंथों  विष्णु पुराण, वायु पुराण, वराह, मत्स्य आदि पुराणों एवं महाभारत, मनुस्मृति जैसे धार्मिक शास्त्रों में प्राप्त होता है।

इस काल और प्रथा को “मृतक स्मरण का दिन” भी माना जा सकता है। यह हिंदू कैलेंडर के अनुसार पिता और माता दोनों के लिए अलग-अलग तिथि या मृत्यु वर्षगांठ पर किया जाने वाला धार्मिक आयोजन होता है।

प्रमुख हिन्दू धर्म ग्रंथ गरुड़ पुराण में भी प्रलेखित किया गया है, कि मृत्यु के पहले वर्ष में किये गए श्राद्ध का प्रमुख महत्व होता है।

प्रमुख हिन्दू शास्त्रों के अनुसार ऐसा कहा और माना जाता है, कि मृत्यु के 14 वें दिन मृतक की आत्मा यमपुरी की यात्रा प्रारम्भ कर देती है, और 17 दिनों में वहां पहुंच जाती है।

मान्यता अनुसार पितृ पक्ष के दौरान हम मृतक को जो दान, तर्पण और प्रसाद अर्पित करते हैं। वह इन आत्माओं तक पहुंचता है, और उनकी भूख और प्यास को संतुष्ट करता है।

सम्पूर्ण भारतवर्ष में इस प्रथा को अलग-अलग नाम और तरीकों से मनाया जाता है। जैसे तमिलनाडु में अमावसाई, केरल में करिकडा वावुबली और महाराष्ट्र में पंधरवडा स्थानों पर संपन्न कराया जाता है।

इसी कारण वर्ष में एक बार पितृ पक्ष के दौरान सारे पूर्वजों को तृप्त करने की प्रक्रिया दोहराई जाती आ रही है। हिन्दू मान्यता में पिंडदान एक मुख्य कर्तव्य है

इस विशेष भोजन को अर्पित करने को पिंडदान माना जाता है। ऐसा माना जाता है, कि पिंडदान करने के बाद हमारे पूर्वजों को मोक्ष की प्राप्ति होती है।